बेघर लोगों में गंभीर मानसिक रोग ज्यादा अनुपात में मिलता है, बजाय उनके जो सुरक्षित रूप से बसे हैं। चित्र:  टोमस कास्तेल्जो

दिल्ली के जामा मस्जिद से चलने वाला यह क्लीनिक कई मायनो में असाधारण है 

रानी कनॉट प्लेस के हनुमान मंदिर के पास अकसर घूमती नजर आती थी। उसे अपनी सुध नहीं थी इसलिए वह कभी-कभी बिना कपड़ों के भी दिखाई देती। एक स्थानीय पानवाला अकसर उसे खाना देता पर उसे समझाने में विफल रहता । रानी की इसी स्थिति का फायदा उठा कर कई लोग उसका शारीरिक शोषण भी करते।  

यही कारण था कि जब आश्रय  अधिकार अभियान के सदस्यों ने रानी के इलाज के लिए संपर्क किया तो पानवाले ने उनसे एक महिला कार्यकर्ता को साथ लाने को कहा। जब वे महिला कार्यकर्ता के साथ पहुंचे, तब भी पानवाला रानी की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ और खुद हेल्थ कैंप तक रानी के साथ आया । यह हेल्थ कैंप कुछ निर्धारित दिनों पर जामा मस्जिद, पुरानी दिल्ली में लगता है । आज रानी की हालत में असाधारण सुधार आ चुका है। न सिर्फ वह खुद का अच्छी तरह से ख्याल रखती है, बल्कि हनुमान मंदिर के पुजारी ने बताया कि रानी मंदिर की साफ सफाई में भी हाथ बटाती है ।     

मेरी खुद से पहचान 

कुछ ऐसी ही कहानी है मंजू (काल्पनिक नाम) की जो तीन साल से जामा मस्जिद के पास रह रही थी। उसकी मानसिक स्थिति इतनी खराब थी कि वह कभी भी पास से निकल रहे लोगों के साथ झगड़ने लगती। उसकी हालत देखते हुए, जल्दी से जल्दी इलाज जरूरी समझा गया और उसे मेंटल हेल्थ एक्ट,1987 के तहत इभास में भर्ती कराया गया। धीरे-धीरे उसकी हालत में सुधार होने लगा और चार हफ्तों के बाद ही अस्पताल से छुट्टी कर दी गई। उसने डॉक्टर को बताया कि वह बहुत सालों से इस मानसिक बीमारी से ग्रसित हैऔर उसकी इस हालत के कारण ही पति ने छोड़ दिया ह।

मंजू की शादीशुदा बेटियां और एक भाई है, जो कि बिहार में रहते हैं। बावजूद इसके वह अपने एक साथी के साथ दिल्ली में ही रहना चाहती है। अपनी स्थिति सुधरने पर उसने अपने साथी को भी भांग और शराब छोड़ने के लिए इलाज कराने को राजी कर लिया। आजकल दोनों जामा मस्जिद के उर्दू पार्क में सूखा मेवा बेचते हैं । आश्रय अधिकार अभियान की मदद से मंजू को स्थायी सामाजिक जीवन जीने के लिए जल्दी ही पहचान पत्र और बैंक खाता मिलने जा रहा है।

अपनी स्थिति सुधरने पर उसने अपने साथी को भी भांग और शराब छोड़ने के लिए इलाज कराने को राजी कर लिया। आजकल दोनों जामा मस्जिद के उर्दू पार्क में सूखा मेवा बेचते हैं

बेघर मानसिक रोगी मुख्य लक्ष्य 

रानी और मंजू जैसे कई लोग इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज (इभास) और आश्रय अधिकार अभियान के इस क्लीनिक से लाभ उठा चुके हैं जिसका मुख्य लक्ष्य बेघर मानसिक रोगियों का इलाज करना है। 

इभास और आश्रय  अधिकार अभियान की यह पहल वर्ष 2000 में शुरू हुई। लेकिन गलियों में घूम रहे मानसिक रोगियों का इलाज वर्ष 2008 से शुरू किया गया। अभी तक यह दिल्ली और आस-पास के तकरीबन दस लाख बेघर और मानसिक रोगियों की मदद और इलाज कर चुके हैं।

यहां के डॉक्टर न केवल बेघर और गरीब मरीजों का इलाज करते हैं, बल्कि नशीले पदार्थ लेने के आदी लोगों को भी सामूहिक परामर्श देते हैं। 

प्रवीण की नशीले पदार्थों के सेवन की आदत कई बार नशा-मुक्ति केंद्र जाने के बाद भी छूट नहीं रही थी लेकिन आज वह न सिर्फ सामान्य जीवन जी रहा है बल्कि सामूहिक परामर्श में डॉक्टरों की मदद भी करता है: “इभास और आश्रय अधिकार अभियान का भावनात्मक सहयोग इस बुरी आदत को खत्म करने के लिए कारगर साबित होता है। इस वजह से मैं अपने जैसे लोगों को इस स्वास्थ्य शिविर तक पहुंचाता हूँ ।“

नहीं मिलता संवैधानिक अधिकार 

यह लोग हमारे समाज के सबसे कमजोर तबके से होने के कारण हमेशा कतार के आखिर में खड़े रह जाते हैं । कोई स्थाई घर न होने के चलते यह संवैधानिक अधिकार और निवारण तंत्र के तहत मिलने वाले उन लाभों से भी वंचित रह जाते हैं जिनसे वे अपनी जिदंगी बेहतर बना सकें। 

इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैं कि बेघर लोगों में गंभीर मानसिक रोग ज्यादा अनुपात में मिलता है, बजाय उनके जो सुरक्षित रूप से बसे हैं। ऐसे में इस वर्ग की नशीले पदार्थों पर निर्भरता भी बढती है जिससे इलान करने में और मुश्किल आती है । बहुत से अनुमान यह बताते हैं कि बेघरों की आधी आबादी किसी न किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है। 

इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैं कि बेघर लोगों में गंभीर मानसिक रोग ज्यादा अनुपात में मिलता है, बजाय उनके जो सुरक्षित रूप से बसे हैं। ऐसे में इस वर्ग की नशीले पदार्थों पर निर्भरता भी बढती है जिससे इलान करने में और मुश्किल आती है । बहुत से अनुमान यह बताते हैं कि बेघरों की आधी आबादी किसी न किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है 

स्थानीय कार्यकर्ताओं का बल 

बेघर मानसिक रोगियों की सहायता की प्रक्रिया स्थानीय कार्यकर्ताओं की मदद से ही मजबूत हो पाई है। कार्यकर्ता कुछ दिनों तक इनके इधर-उधर घूमने के तरीके को समझते हैं और उन जगहों की पहचान करते हैं जहां यह अकसर जाते हैं।  

क्या है आश्रय अधिकार अभियान 

आश्रय अधिकार अभियान, एक ऐसा अभियान है जो कि बेघर लोगों को उनके अधिकारों की लड़ाई के साथ हुआ था। लेकिन आज यह एक व्यापक रूप ले चुका है। आज यह न सिर्फ बेघरों को सशक्त बनाने में जुटा है, बल्कि इन्हें  रहने और स्वास्थ्य सुविधाएं भी प्रदान कर रहा है। इसके साथ ही मानसिक रूप से बीमार बेघरों का इलाज और इलाज के बाद उनकी देखरेख का जिम्मा भी संस्था ने उठाया है। इसके अलावा यह बच्चों को दो वक्त का खाना और उनकी शिक्षा के लिए भी कृत संकल्प है

कब-कब लगती है क्लीनिक  

यह क्लीनिक हर सोमवार और गुरुवार को शाम 6 बजे से 8 बजे तक जामा मस्जिद के गेट नंबर-2 की तरफ उर्दू पार्क के पास लगती है

इभास के डायरेक्टर डॉ. निमिश देसाई का कहना है कि कार्यकर्ताओं का इस तरह से उन मरीजों पर नजर रखना इलाज के दौरान बहुत मददगार साबित होता है ।

पहचान किए गए मरीजों को यह कार्यकर्ता शिविर में ले आते हैं, जो कि हफ्ते में दो दिन सोमवार और गुरुवार को लगता है। परिजनों की अनुपस्थिति में इन मरीजों का इलाज करने के लिए कानूनी अनुमति की जरूरत पड़ती है जो कि एक लंबी प्रक्रिया है। इसके चलते कई बार मरीज इधर-उधर चले जाते थे। इस समस्या के समाधान के लिए दिल्ली लीगल सर्विसेस अथॉरिटी (डीएलएसए) से मदद ली गई ।

अब हर सोमवार को क्लीनिक के समय पर मजिस्ट्रेट वहां आकर बैठते हैं। मरीज की हेल्थ कंडीशन देखने के बाद डॉक्टर इलाज के लिए रिकमंड करते हैं। तभी मजिस्ट्रेट उसके इलाज के लिए लीगल ऑर्डर निकाल देते हैं और जल्दी से मरीज का इलाज शुरू हो जाता है।  

कठिनाईयां और भी हैं 

हालांकि समूह द्वारा कानूनी मुद्दों को सुलझाने का बहुत अच्छा समाधान निकाल लिया गया है, लेकिन अभी भी बहुत सी रुकावटें हैं जो कि जल्दी खत्म होती नहीं दिख रही । जैसे कि बेघरों के लिए बुनियादी जरूरतों के अलावा अन्य जरूरी सामानों का इंतजाम करना आर्थिक मदद की कमी के चलते कठिन होता जा रहा है। यह सही है कि बहुत से लोग उनके प्रयासों की सराहना करते हैं, लेकिन उन्हें कहीं से भी कोई आर्थिक मदद नहीं मिल पा रही है ।

मरीजों को कम दाम पर दवा मिल सके इसके लिए समूह के सदस्यों ने बहुत सी दवा कंपनियों और दवाखानों से संपर्क किया, लेकिन सभी जगह से उन्हें निराशा ही हाथ लगी। अभी तक जो लोग इस काम में शामिल हैं, वे ही इन बेघरों और अन्य मरीजों के इलाज के लिए जरूरी दवा का इंतजाम खुद के ही पैसों से कर रहे हैं। इसके साथ ही उनका खाना, कपड़े और रहने का इंतजाम भी वे लोग ही कर रहे हैं। लेकिन बढ़ती मांग और सीमित संसाधनों के चलते इस काम को आगे बढ़ा पाना कठिन नजर आ रहा है । 

आश्रय अधिकार अभियान के उप-निदेशक संजय कुमार बताते हैं कि वित्तीय संस्थाएं और यहां तक कि सरकार के दृष्टिकोण से पूंजीवाद झलकता है । “वह केवल उन सामाजिक संगठनों को ही समर्थन करते हैं जो कुछ लाभ दे सकें या फिर उनकी हाँ में हाँ मिलाएं ।” 

बेघरों के लिए बुनियादी जरूरतों के अलावा अन्य जरूरी सामानों का इंतजाम करना आर्थिक मदद की कमी के चलते कठिन होता जा रहा है। यह सही है कि बहुत से लोग उनके प्रयासों की सराहना करते हैं, लेकिन उन्हें कहीं से भी कोई आर्थिक मदद नहीं मिल पा रही है 

मारी मानवीय ज़िन्दगी का आधार एक दूसरे का सहयोग है । बेघर लोगों को परिवार का साथ नहीं मिलता तो यह अवसाद, चिंता, मानसिक रोग और नशे के आदी हो जाते हैं। पर आश्रय में वह न सिर्फ ठीक होते हैं बल्कि एक दूसरे के सहयोगी बनते हैं। ऐसी पहल का समर्थन करना ही हमारे समाज की स्थिरता का प्रमाण होगा ।इस अभियान से जुड़ने के लिए संपर्क करें
 

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