बाज़ार के तंत्र ने भूमि सुधार के असफल युग का स्थान ले लिया है जिसके द्वारा गरीब और गरीब हो रहे है
भूमि सुधार का तात्पर्य कृषि भूमि के साथ किसान के संन्द संस्थागत परिवर्तन लाये जाने से है। इस संदर्भ में भूमि सुधार के लिए दो प्रमुख उद्देश्य अपनाये गए है: एक, कृषि उत्पादन में वृद्धि और दूसरा, कृषिकों के प्रति सामाजिक न्याय।
इस एजेंडे का निर्माण 1960 के दशक में हुआ था, फिर समय के साथ इसे भुला दिया गया । परंतु कुछ प्रसिद्ध आंदोलनों ने लोगो को इस पर विचार करने के लिए प्रेरित किया है। 2012 में राष्ट्रीय स्तर के भूमि सुधार कानून की एक प्रमुख मांग के साथ, एकता परिषद के बैनर तले, हजारों दलितों और आदिवासियों ने जन सत्याग्रह मार्च निकाला। केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने 10 सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किए।
इसने राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति का मसौदा तैयार किया लेकिन बिल पारित नहीं हो सका, और ना ही "होमस्टेड बिल" संसद में पेश किया गया। होमस्टेड घर के बगल के छोटे खेत को कहा जाता है।
जब एनडीए ने सत्ता संभाली, तो एकता परिषद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एजेंडे के बारे में याद दिलाया, लेकिन इसे लागू करने के बजाय, सरकार ने कॉर्पोरेट क्षेत्र को लाभ पहुंचाने के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम को कमजोर करने का प्रयास किया।
देश के हर राज्य में भूमि से संबंधित अलग कानून हैं, जिनमे से अधिकांश में ख़ामियाँ हैं। इन ख़ामियों ने अक्सर परंपरागत जमींदारों के गढ़ को मज़बूत किया है, जिसके कारण देश के विकास की प्रक्रिया को आए दिन पराजित होना पड़ता है।
एकता परिषद के अभियान के बारे में विस्तार से पढ़ें
भूमि सुधार क्यों आवश्यक हैं
आज़ादी के समय भारत के कृषि ढांचे की विशेषता भूमि के असमान वितरण और किसानों के शोषण से थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त जागीरदारों और जमींदारों जैसे बिचौलिये किसानों से उच्च किराया इकट्ठा करते थे। इन बिचौलियों को खेती और कृषि भूमि के सुधार में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
किसानों के नाम ज़मीन नहीं थी, उनके कार्यकाल की कोई सुरक्षा नहीं थी और देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न भू-राजस्व और स्वामित्व प्रणालियां प्रचलित थीं। 1949 में इस मुद्दे पर ग़ौर करने और कृषि और 'भूमि उपज को बढ़ावा देने के लिए अर्थशास्त्री जे सी कुमारप्पा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई । समिति ने जमींदारी उन्मूलन, सुरक्षित और लाभदायक भूमि अधिकार, भूमि स्वामित्व की हद और भूमिहीन किसानों के बीच अधिशेष भूमि के पुनर्वितरण का सुझाव दिया। इसे भूमि सुधार का पहला चरण माना जाता है। इसके बाद खेती की भूमि के क्षेत्र का विस्तार, और मिट्टी और जल संरक्षण जैसे विकास कार्यक्रमों पर ध्यान दिया गया। लेकिन अधिकांश योजनाओं, नीतियों, और सुधारों से भी ‘land to the tiller’ यानी "भूमि उसकी जो उसे जोते" के विचार को प्राप्त करने में केवल आंशिक सफलता मिली।
जमींदारी उन्मूलन, सुरक्षित और लाभदायक भूमि अधिकार, भूमि स्वामित्व की हद और भूमिहीन किसानों के बीच अधिशेष भूमि का पुनर्वितरण भूमि सुधार का पहला चरण था
परंतु भूमि स्वामित्व की सीमा को लागू करने में लंबी देरी की गयी। इससे जमींदारों को अपनी संपत्ति को सुरक्षित रखने में मदद मिलती रही
सोशीयो ईकनामिक और जातिय जनगणना के अनुसार, ग्रामीण भारत में 56 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनके पास कोई कृषि भूमि नहीं है। दूसरी ओर, लगभग 7.18 प्रतिशत परिवारों के पास देश की कृषि भूमि का 46.71 प्रतिशत से अधिक है । यह दर्शाता है कि भूमि सुधार के पहले चरण के बाद भी कुछ लोग बड़े संसाधनों पर कब्ज़ा करना जारी रखे हैं। ग्रामीण कुलीन वर्ग के मुकाबले गरीबों को सशक्त बनाने के अपने मुख्य कार्य में भूमि सुधार विफल रहे।
कुलीन वर्ग द्वारा प्रायोजित सुधार
सभी राज्यों में भूमि सुधार का पहला चरण मुख्य रूप से बिचौलियों के उन्मूलन, किसानों की जमींदारों द्वारा शोषण से रिहाई, भूमि स्वामित्व पर सीमा या सीलिंग तय करना और भूमि के एकत्रीकरण के लिए था। हालांकि कानून एक राज्य से दूसरे राज्य में भिन्न था, परंतु हर जगह भूमि स्वामित्व की सीमा को लागू करने में लंबी देरी की गयी।
इससे जमींदारों को अपनी संपत्ति को सुरक्षित रखने में मदद मिलती रही। यह कानून धार्मिक और धर्मार्थ ट्रस्ट, शैक्षणिक संस्थान या केंद्र या राज्य सरकार द्वारा रखी गई भूमि को छूट देते हैं। कई जमींदारों ने अपने अधिशेष भूमि को ऐसे ट्रस्टों के नाम पर या अपने नौकरों के नाम पर स्थानांतरित कर दिया जो अक्सर उनके प्रतिनिधि के रूप में काम आते रहे।
पुराने ज़मींदार अब अमीर किसान बन गए और बड़े पैमाने पर भूमिहीन इस स्वामित्व संरचना के निचली स्तर पर रह गए
ग्रामीण भारत में 56% परिवार ऐसे हैं जिनके पास कोई कृषि भूमि नहीं। दूसरी ओर, 7.18% परिवारों के पास देश की कृषि भूमि का 46.71% से अधिक है
इन्स्टिटूयट फ़ोर सोशल एंड ईकनामिक चेंज के प्रोफेसर आर एस देशपांडे ने अपने शोध पत्र " करंट लैंड पॉलिसी इन इंडिया" में कहा है कि "भूमि सुधार की यह विफलता मुख्य रूप से राजनीतिक प्रक्रिया और विभिन्न मुद्दों पर गांव-स्तर के राजनीतिकरण का परिणाम था। अधिकांश सुधार कानूनों में यह प्रावधान शामिल थे कि किसान स्वेच्छा से अपनी ज़मीन वापस जमींदारों को सौंप सकते हैं। इन प्रावधानों का उपयोग जमींदारों ने कानूनों को कमजोर करने के लिए किया। ”
11 राज्यों के क़ानूनों की तहक़ीक़ात करती गैर-लाभकारी संस्था, एक्शन–एड इंडिया, की 2016 की रिपोर्ट भूमि सुधार को "कुलीन प्रायोजित” सुधार कहती है। पुराने ज़मींदार अब अमीर किसान बन गए और बड़े पैमाने पर भूमिहीन इस स्वामित्व संरचना के निचली स्तर पर रह गए।
कई राज्यों ने अब उन भूमिहीन किसानो की नवीनतम सूची रखना भी बंद कर दिया है जिनको ज़मीन दी जा रही है। मध्य प्रदेश और हरियाणा का दावा है कि उनके क्षेत्रों में अब किराए पर किसानी नहीं होती। एक्शन एड की रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि सुधार में केरल अग्रणी रहा है। यहाँ पर 14.5 लाख एकड़ से अधिक ज़मीन को 28.42 लाख किसानों में बाँटा गया। महाराष्ट्र और गुजरात में क्रमशः 14.92 लाख और 12.97 लाख किसानों को लाभ हुआ।
अधिशेष भूमि का पुनर्वितरण
भूमि के स्वामित्व पर सीमा की अवधारणा इस तथ्य पर आधारित थी कि समाज का एक बड़ा वर्ग भूमिहीन है और वह अधिशेष भूमि का उपयोग आजीविका के स्रोत में कर सकता है। चूँकि हर राज्य ने अपने कानून बनाये थे, भूमि स्वामित्व पर सीमा अलग-अलग थी और ऊँची सीमा ने बड़ी संख्या में जमींदारों को छूट दी थी। इससे अधिकांश राज्यों में पुनर्वितरण असफल रहा।
1972 से 2002 तक, औसत अधिशेष भूमि 1.50 लाख एकड़ प्रति वर्ष थी, जो कि 2002 और 2015 के बीच 4,000 एकड़ प्रति वर्ष तक गिर गयी । 2015 तक पूरे देश में 67 लाख एकड़ भूमि अधिशेष थी, जिसमें से सरकार ने 61 लाख एकड़ भूमि अधिग्रहित की। बाकी या तो मुकदमेबाजी में चली गई या खेती के लिए अयोग्य घोषित कर दी गई। 61 लाख एकड़ में से, 51 लाख एकड़ भूमि 57.8 लाख लोगों में वितरित की गई । इसका भी एक बड़ा हिस्सा (20 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल का योगदान था, जिसने 10.5 लाख एकड़ भूमि का वितरण किया। बंगाल में भारत के आधे से अधिक भूमि सुधार लाभार्थी हैं।
अधिशेष भूमि वितरण की विफलता के बाद, राज्य सरकारों ने सरकारी या बंजर भूमि को वितरित करके भूमि हीनों की मांग को पूरा करने का प्रयास किया। तब भी केवल 148.55 लाख एकड़ सरकारी भूमि वितरित की गई, जो देश की कुल खेती क्षेत्र का सिर्फ 3.8 प्रतिशत है – एक्शन-एड रिपोर्ट ने कहा।
भूमि पर जाति और लिंग
भारत में भूमि का स्वामित्व सामाजिक हैसियत से जुड़ा है और स्वामित्व ज्यादातर उच्च जातियों का है। अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति परंपरागत रूप से भूमि अधिकारों से वंचित रहे हैं। कृषि जनगणना 2015-16 में कहा गया है कि अनुसूचित जातियां केवल 9 प्रतिशत क्षेत्र में खेती करती हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी आबादी का हिस्सा 18.5 प्रतिशत है। साथ ही, दलितों के 61 प्रतिशत खेतों का क्षेत्रफल 2 हेक्टेयर से कम है। उनका भूमि स्वामित्व भी धीरे धीरे कम हो रहा है हालाँकि एससी / एसटी एक्ट की धारा 42 के तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों से गैर-दलितों को भूमि हस्तांतरण मुश्किल होता है।
“स्वतंत्रता के पश्चात भूमि सुधार एक प्रमुख नीति थी, लेकिन भूमि से जुड़े जाति समूह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति थे । इसलिए, कानून बनाने के लिए ज़िम्मेदार लोगों के हित कानून के कार्यान्वयन के साथ जुड़े थे ,” देशपांडे ने लिखा, "स्वाभाविक रूप से, भूमि सुधार कानूनों को या तो पूरी तरह से लागू नहीं किया गया या प्रशासन संस्थानों की मदद से हेर फेर कर दिया गया ।"
अनुसूचित जातियां केवल 9% क्षेत्र में खेती करती हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी आबादी का हिस्सा 18.5% है
भूमिहीनों के लिए सामुदायिक ज़मीन चारे और खेती के लिए ज़रूरी है पर इसकी औसत उपलभता कम होती जा रही है
गाँव के लोक या सामुदायिक संपत्ति संसाधन गाँव के गरीबों के सामाजिक और आर्थिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हैं क्योंकि गाँव के प्रत्येक सदस्य को इसके उपयोग और उपभोग की अनुमति है। हालांकि, सामुदायिक या शामलात भूमि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत हिस्सा है , इसमें 1993 और 1998 के बीच 1.9 प्रतिशत की गिरावट देखी गई। एनएसएसओ 54 वें दौर के सर्वे में कहा गया कि प्रति परिवार सामुदायिक भूमि की औसत उपलब्धता 0.31 हेक्टेयर कम हुई, जिससे उन गरीब भूमिहीनों की आजीविका प्रभावित हुई जो जानवरों के चारे या पट्टे पर खेती के लिए इसका उपयोग करते हैं।
पंजाब के स्न्द्र्भ में अगर देखें तो उच्च जातियां खेती के परिदृश्य पर हावी हैं। यहां 32 प्रतिशत दलित आबादी के पास सिर्फ 3.5 प्रतिशत कृषि भूमि है, जो कि भारत में जनसंख्या के अनुपात में सबसे कम हिस्सेदारी है।
"गांवों में ऊंची जातियों को जमीन के बड़े टुकड़े पर अधिकार प्राप्त है और वे नहीं चाहते कि कोई भी दलित सामुदायिक कृषि भूमि पर खेती करे। इस प्रथा पर सवाल उठाने के लिए हमारे खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए हैं," यह कहना है गुरमुख सिंह का जो एक ज़मीन प्राप्ति संघर्ष समिति के जिला सचिव हैं । यह अभियान दक्षिण पंजाब के कईं गांवों में दलितों को सामुदायिक ज़मीन पर खेती का हक़ दिलाने में सक्षम रहा है।
भारत में भूमि के स्वामित्व से महिलाओं को भी परंपरागत रूप से वंचित किया गया है, हालाँकि 73 प्रतिशत से ज़्यादा ग्रामीण कामगर महिलाएँ खेती से जुड़ी हैं । कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, भारत में पूरे परिचालन कृषि जोत का केवल 13.96 प्रतिशत ही महिलाओं के नाम है, जो कुल कृषि क्षेत्र फल का मात्र 11.72 प्रतिशत है। इसके अलावा, पुरुषों द्वारा जोती गयी ज़मीन का औसत क्षेत्रफल 1.17 हेक्टेयर है, जबकि महिलाओं का औसत सिर्फ़ 0.93 हेक्टेयर है।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) में संशोधन का उद्देश्य इन असमानताओं को दूर करना था। अधिनियम बेटियों, विधवा या मरने वाली संपत्ति के मालिक की मां को अधिकार प्रदान करता है। पर न तो यह क़ानून पूरी तरह लागू हो पाया और न ही सभी महिलाएँ इस कानून के दायरे में आ सकी।
“ग्रामीण खेती में महिलाओं की भागीदारी लगभग 70 प्रतिशत है लेकिन भूमि उनके नाम पर नहीं है क्योंकि स्वामित्व हमेशा पुरुषों द्वारा निर्धारित किया जाता है। सिर्फ़ कुछ आदिवासी समाजों में भूमि को पुरुषों और महिलाओं के बीच समान रूप से विभाजित करने की प्रथा है, ” यह कहना है ग्रामीण सामुदायिक संसाधनों पर नीति विश्लेषज्ञ अभिषेक जोशी का ।
उदारीकरण और भूमि सुधार
नए बाजार द्वारा निर्देशित भूमि सुधार पुनर्वितरण सुधारों से अलग हैं। यह भूमिहीन को और प्रभावित कर रहे हैं और पहले से ही समृद्ध को और समृद्ध कर रहे हैं। कई नव उदारवादी वैज्ञानिक, कृषि विशेषज्ञ और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठन महसूस करते हैं कि भूमि का उपयोग और पहुंच किसी भी प्रतिबंध से मुक्त होनी चाहिए।
कॉर्पोरेट एजेंसियों के लिए कृषि भूमि पर सीलिंग प्रावधानों में ढील दी गई है और किरायेदारी को उदार बनाने के लिए एक आक्रामक आधिकारिक वकालत की जा रही है
पिछले कुछ वर्षों में कॉर्पोरेट एजेंसियों के लिए कृषि भूमि पर सीलिंग प्रावधानों में ढील दी गई है और किरायेदारी को उदार बनाने के लिए एक आक्रामक आधिकारिक वकालत की गई है। अभिषेक जोशी का कहना है कि 1991 में शुरू हुए उदारीकरण और औद्योगीकरण के युग ने भूमि को एक परिसंपत्ति में बदल दिया जिसे विमुद्रीकरण करना ज़रूरी हो गया। सरकार ने वन और जनजातीय भूमि को और उद्योगों और खनन क्षेत्रों को सौंप दिया।इस सब का नतीजा यह हुआ कि यह ग़रीब और हाशिये पर आ गए और विस्थापन बढ़ गया।
भारत में, केंद्र सरकार लौह अयस्क, बॉक्साइट जैसे प्रमुख खनिजों को नियंत्रित करती है और राज्य सरकार राज्य के सभी छोटे खनिजों को नियंत्रित करती है। 2009 के अंत तक, 23 राज्यों में 4.9 लाख हेक्टेयर भूमि खनन पट्टों में दी गई थी और इनमें से 95 प्रतिशत पट्टे निजी कंपनियों को दिए गए। 2011 में, सरकार खनन और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक के साथ आई, जिसका उद्देश्य खनन क्षेत्र को और अधिक उदार बनाना एवं निजीकरण को प्रोत्साहित करना है।
“यदि सरकार वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को लागू किए बिना वन क्षेत्रों का अधिग्रहण करती है, तो लोग कहां जाएंगे? ज़मीन के बदले ज़मीन देना तो दूर, उन्हें फिर से बसाया भी नही गया,। हालांकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में राज्य सरकारों ने होम्स्टेड के संबंध में कुछ पहल की हैं, लेकिन जब तक हमारे पास केंद्रीय कानून नहीं होगा तब तक स्थिति नहीं बदलेगी। हमें समझना होगा कि भूमि सुधार एक बहु आयामी ढांचा हैं। ”
अनुवाद: नीलकुसुम केरकेटा
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