
तवायफों ने उस युग में संगीत और साहित्यिक परिदृश्य में अपना योगदान दिया जब ज्यादातर महिलाएं पर्दे में रहती थीं। ‘द अदर सॉन्ग’ ऐसी फिल्म है जो कि इस बात की पड़ताल करती है कि कैसे इन कलाकारों का दमन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप उनका पेशा विलुप्त होता चला गया। हमने बात की फ़िल्मकार सबा दीवान से इस कठिन विषय को पर्दे पर उतारने के अनुभव के बारे में।
स: ‘द अदर सॉन्ग’ एक खोए हुए गाने की खोज के माध्यम से एक कठिन विषय की पड़ताल करती है। आप यह फिल्म बनाने के लिए कैसे प्रेरित हुईं।
मेरा ज्यादातर काम लिंगभेद और लैंगिकता के आस-पास रहा। ‘सीताज़ फैमिली’, नाम से मैंने एक फिल्म बनाई थी, जो कि हमारे परिवार की तथाकथित सम्मानित, मध्यम वर्गीय महिलाओं के बारे में थी। मैं मध्यम वर्गीय महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक सुधारों से संबंधित उनके इतिहास को देख रही थी। इस शोध के दौरान मैंने कुछ ऐसे लेख पढ़े जिसमें तवायफों या वैश्यालयों का ज़िक्र था। उन उदाहरणों से मैंने महसूस किया कि 19वीं सदी के आखिर तक जब हमारे वर्ग की औरतें परदे में रहती थीं, उस समय यह तवायफें उच्च शिक्षित महिलाएं थीं। इस बात ने भी मुझ में कुतूहल पैदा किया कि कुछ संदर्भों के अलावा, इन महिलाओं के बारे में बहुत ही कम सामग्री थी, जिन्होंने वास्तव में संगीत और शिक्षा में काफी ज्यादा योगदान दिया।
मैंने महसूस किया कि 19वीं सदी के आखिर तक जब हमारे वर्ग की महिलाएं परदे में रहती थीं, उस समय यह तवायफें उच्च शिक्षित महिलाएं थीं
तब मैंने फैसला लिया कि मैं तवायफों पर फिल्म बनाऊंगी। मैंने वर्ष 2002 से उनकी जीवन शैली, कला प्रथाओं, और दमन पर शोध करना शुरू किया। जब मैं यह कहानी बताने का तरीका ढ़ूंढ़ रही थी, तब इस ठुमरी तक पहुंची जो कि अब गुम हो चुकी है। तब मैंने महसूस किया कि वास्तव में बहुत से ऐसे गीत हैं जो कि या तो गुम हो गए या फिर नए नैतिक मानकों में ढ़ालने के लिए उनके शब्दों में बदलाव कर दिया गया है। इस तरह से तवायफों की कहानी भी है, जिन्हें सामाजिक स्वीकारोत्ति के लिए खुद को बदलना पड़ा।
स: ऐसा लगता है कि कहानी फिल्मांकन करते हुए सामने आ रहीं है लेकिन कथानक से पता चलता है कि विषय के बारे में आप पहले से बहुत कुछ जानती थी। फिल्मांकन से पहले आपने किस तरह का शोध किया ?
इस फिल्म को बनाने में बहुत समय लगा क्योंकि इसके लिए गहन शोध की जरूरत थी, जो संभवतः दिखता है। इसीलिए कईं बार शोध के दौरान भी मैं शूटिंग कर रही थी। एक समय आया जब मैंने फैसला किया कि यह ठुमरी मेरे लिए तवायफों की कहानी बयां करने का माध्यम होगा। मैंने इसे इस तरीके से शूट किया कि मैं इस खोयी हुई ठुमरी की तलाश में हूं, जो कि कई और सवालों तक ले गया।
स: फिल्म बहुत सारे मुद्दों जैसे लिंगभेद, सांप्रदायिकता और नैतिकता की बात करती है। आपको क्या लगता है कि तवायफों का सबसे ज्यादा विरोध इनमें से किसने किया ?
इन सब ने। लिंगभेद निश्चित ही एक मुख्य कारण था। महिलाएं हमेशा से ही पुरुष प्रधान समाज में हाशिये पर रहीं हैं। इस मामले में, वैश्याओं के व्यवसाय, उनकी जीवन शैली, उनके पूरे अस्तित्व को ब्रिटिश सरकार द्वारा अनैतिक करार दिया गया । विडंबना यह रही कि राष्ट्रवादी , जो कि खुद उच्च शिक्षित और शायद विदेशी विचारों से प्रेरित थे, भी उनसे यही बर्ताव करने लगे। उनका लिंग और अनावर्त कामुकता उनके खिलाफ रही। एक तरह की नैतिक पवित्रता उस समय हर क्षेत्र में हो रही थी। इसलिए यह विरोध न सिर्फ तवायफों का हुआ बल्कि उन सभी कला प्रथाओं का जो कि इस अभियान की चपेट में आए।
स: फिल्म मुख्य रूप से बनारस में हुए बदलाव को दर्शाती है कि अब कार्यक्रम के लिए तवायफों को शहर से बाहर जाना पड़ता है। क्या आपको लगता है कि यह शहर इस प्रथा पर सांप्रदायिकता के प्रभाव का केंद्र बिंदु रहा?
ऐसा नहीं है। पवित्रीकरण की यह प्रक्रिया महिलायों के विरुद्ध हर जगह हुई। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत में ‘एंटी नॉच आंदोलन’ हुआ जो कि देवदासियों के मंदिरों और संभ्रांत घरों में कला प्रदर्शन के खिलाफ था। यही लहर उत्तर भारत पहुंची और इसने तवायफों को प्रभावित किया। सभी प्रमुख केंद्र, सभी क्षेत्र, नैतिकता, राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता जैसी समान ताकतों से प्रभावित थे। क्योंकि बनारस न सिर्फ कला संस्कृति का परन्तु हिंदू धर्म का भी मुख्य केंद्र है, इसलिए यहाँ पर विशेष असर देखने को मिला। फिल्म बनारस पर है, लेकिन मेरा इरादा यह कहना नहीं था कि यह केवल यहीं पर हुआ ।
जो महिलाएं फिल्म में बात कर रही हैं वे वर्तमान पीढ़ी की हैं जो कि अब यह पेशा छोड़ चुकी हैं। जब वे बनारस से बाहर जाने की बात करती हैं, इसका मतलब है कि जब तक उनका परिवार वहां पर है वे नहीं चाहतीं कि उन्हें तवायफों के तौर पर पहचाना जाए। दूसरा, अब शहर में इस तरह की कला को लेकर कोई मंच भी नहीं रह गया है। इसीलिए यह महिलाएं अब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों की ओर, जाती हैं जहां उन्हें आज भी शादियों में बुलाया जाता है।
वैश्याओं के व्यवसाय, उनकी जीवन शैली, उनके पूरे अस्तित्व को ब्रिटिश सरकार द्वारा अनैतिकता करार दिया। विडंबना यह रही कि राष्ट्रवादि, जो कि खुद उच्च शिक्षित और शायद विदेशी विचारों से प्रेरित थे, भी उनसे यही बर्ताव करने लगे।
स: हमारी पीढ़ी और वर्ग के ज्यादातर लोग तवायफों को भारतीय फिल्मों और उन बड़े नामों के द्वारा जानते हैं जिन्होंने इस तरह की भूमिकाओं को निभाया। आपको लगता है कि इस तरह से परंपरा को जानने में कोई मदद मिली?
मुझे ऐसा नहीं लगता, क्योंकि प्रथा फिर भी मर रही थी। ज्यादातर फिल्मों में तवायफों के चित्रण से उनकी वास्तविक जीवन शैली और कला प्रथा को हटा दिया गया। वह उदास, पीड़ित महिला के तौर पर प्रस्तुत की जाती रहीं, जो कि खुद को मुक्त कराने के लिए हीरो का इंतजार करती हैं। प्यार के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने में ही उनकी पाप मुक्ति रही और उनका एक मात्र अभिलाषा सम्मानित महिलाएं बनना रहा। ‘उमराव जान’ को छो़ड़ कर बाकी सभी फिल्मों में, कोठा एक पाप की जगह बन गया जहां से इन अभिनेत्रियों को मुक्त कराने की आवश्यकता थी। इसलिए, फिल्मों ने तवायफों की जीवनशैली और कोठों को लेकर नकारात्मक छाप ही छोड़ी।
‘उमराव जान’ के इलावा सभी फिल्मों में, कोठा एक पाप की जगह बन गया जहां से इन अभिनेत्रियों को मुक्त कराने की आवश्यकता थी। इसलिए, फिल्मों ने तवायफों की जीवनशैली और कोठों को लेकर नकारात्मक छाप ही छोड़ी।
स ‘द अदर सॉन्ग’ महिला कलाकारों पर बनीं तीन फिल्मों में से सबसे बाद में बनी। पहली दो फिल्में, जो कि समकालीन अदाकाराओं पर बनी थीं, ने इस फिल्म पर क्या प्रभाव छोड़ा जो कि एक खोई परंपरा को उजागर करती है?
‘दिल्ली, मुंबई, दिल्ली,’ डांस बार में काम करने वाली लड़कियों के ऊपर बनी थी, जबकि ‘नाच’ उन लड़कियों के बारे में थी जो नौटंकी में भाग लेती हैं। यह दोनों फिल्में तवायफों पर शोध करते हुए सामने आईं। यह दोनों फिल्में ‘द अदर सॉग ’ से पहले बनीं क्योंकि यह उनसे लंबी और चुनौतीपूर्ण थी। क्योंकि यह तीनों फिल्में एक तरह से जुड़ी हुईं थी इसलिए एक दूसरे को कुछ हिस्सों में प्रभावित कर गयीं।
स: यह फिल्म इस तरीके से बनी है जिसमें फिल्मकार की एक अनजान व्यक्ति के साथ बातचीत है जिसमें अतीत की घटनाओं के कुछ संदर्भ हैं जैसे कि तवायफों का अपने वाद यंत्रों को गंगा में फेंकना या फिर एक लड़की को पढ़ाई से रोका जाना क्योंकि स्कूल का रास्ता वैश्याओं के मुहल्ले से गुज़रता था। हालांकि यह विधि दर्शक को बांधे रखती है, लेकिन तथ्यों की कमी के चलते वास्तविकता और काल्पनिकता में अंतर करना कठिन रहता है। क्या आपने कहानी को इस तरीके से कहने में कुछ कमी महसूस की?
इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे लगता है कि इस वास्तविक और काल्पनिक के अंतर पर ज्यादा ही ध्यान दिया जाता है। इस विधि का प्रयोग इसलिए किया गया क्योंकि मुझे लगने लगा था कि मैं भी इस कहानी की पात्र हूँ। मैं उन मध्यम वर्गीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हूं, जिन्हें उस समय सावर्जनिक स्थानों पर जाने और शिक्षा पाने के लिए प्रेरित किया जा रहा था जिस समय तवायफों का समाजिक दायरा छोटा हो रहा था।
इसलिए मुझे लगा कि बातों की एक श्रृंखला हो सकती है। इस फिल्म को बनाने में मुझे आठ साल लंबा समय लगा। इस दौरान मैंने बहुत सारे लोगों से बात की जिनमें संगीतकार, बुद्धिजीवी, इतिहासकार और तवायफें शामिल थे। इस तरह से बातचीत की एक विशाल दुनिया थी जो कि संवाद की इस शैली में एकसार हो गई।
मैं भी इस कहानी की पात्र हूँ। मैं उन मध्यम वर्गीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हूँ जिन्हें उस समय सावर्जनिक स्थानों पर जाने और शिक्षा पाने के लिए प्रेरित किया जा रहा था जिस समय तवायफों का सामाजिक दायरा छोटा हो रहा था।
इसको इस तरीके से गढ़ा गया कि आप नहीं जान सके कि यह व्यक्ति कौन है, लेकिन मेरे ख्याल से यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है। बहुत सारे लोगों ने अपने तरीके से इसको समझा है। कई लोग अनुमान लगाते हैं कि मैं एक तवायफ से बात कर रही हूँ। लेकिन वह भी काम आया और वह एक तरीके से मान्य भी था।
चंडीगढ़ क्रिएटिव सिनेमा सर्कल द्वारा ‘द अदर सॉन्ग की स्क्रीनिंग की गई थी
संपादन: वंदना गुप्ता
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