अभय मिश्रा की किताब गंगा पर केंद्रित है पर हर नदी की कहानी है
"भारत में मानव निर्मित एक विशाल नदी नेटवर्क काम करता है, उसे वे लोग गंगा कहते हैं।"
स्थापित पत्रकार, लेखक, और पर्यावरणविद, अभय मिश्रा की किताब "माटी मानुष चून" की यह आखिरी पंक्ति है। किताब गंगा के आने वाले दुर्भाग्य की एक तस्वीर खींचती है। एक भयावह तस्वीर। जो पिछले २०० सालों से हमारे हुक्मरानों के लिए हुए अनाप-शनाप फैसलों की तस्दीक करता है।
ये एक महान नदी के तिल तिल मरने की कहानी हैं। वह नदी जिसे इस देश के करोड़ों लोग अपनी माँ कहते हैं। वह नदी जो एक पूरी भाषा, एक पूरी संस्कृति की जननी है, क्या आप मान सकते हैं कि मर रही है? ये किताब उस लम्हे को बयान करने की कोशिश है कि जब गंगाजल सिर्फ गंगोत्री में बचेगा, बनारस में नहीं।
बाकी जगह सिर्फ पानी होगा, गंगाजल नहीं, जिसके बारे में कहावत थी कि गंगाजल कभी सड़ता नहीं।
आप कह सकते हैं कि ये कल्पना है। पर पिछले 200 सालों में गंगा पर बने बांधों ने, बैराजों ने और गंगा किनारे रहते लोगों के बहते खून के फव्वारे ने आज की वह स्थिति पैदा की है जिसमें अब ठीक होने की क्षमता न के बराबर है। हम अपने नीति निर्धारकों के झूठों के महल पर निर्भर हैं। ठीक वैसे ही जैसे नर्मदा को मारा गया, साबरमती को मारा गया, हम आज गंगा को मरता देख रहे हैं।
अभय मिश्रा, गंगा की कैसी गहरी समझ रखते हैं, किताब में बखूबी निकल कर आता है। गोमुख से गंगासागर तक आपने कई बार परिक्रमा की है। और इसी का फल है यह किताब। अब गंगा के बेटों को कितनी समझ आती है ये किताब, इसे देखना है।
कहानी 2075 में सेट है। फरक्का बाँध टूट गया है। इस कारण बांग्लादेश में 18,000 लोग मारे गए हैं। इस पर बांग्लादेश और भारत में अदावत हो गयी है और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में इस पर मुक़दमा चल रहा है। इस मुक़दमे के दौरान तफ्तीश चल रही है, जिसका ब्यौरा किताब में है।
अभय मिश्रा, गंगा की कैसी गहरी समझ रखते हैं, किताब में बखूबी निकल कर आता है। गोमुख से गंगासागर तक आपने कई बार परिक्रमा की है। और इसी का फल है यह किताब
किताब पढ़ने के लिए कुछ बुनियादी बातें आपको पता होनी चाहिए, मसलन नदी की संस्कृति और नदी के पर्यावरण के बारे में। इनमें से कुछ का मैं नीचे ब्यौरा दे रहा हूँ ताकि सनद रहे-
१. नदियाँ आम तौर पर ऊंचाई से नीचाई की ओर बहती हैं। बात बहुत सरल है पर हम और हमारी सरकार भूल जाते हैं।
२. पानी को यदि हम रास्ता नहीं देंगे तो पानी अपना रास्ता बना लेगा। यह भी बहुत सरल बात है पर हम ध्यान नहीं देते और बैराज पे बैराज ठोकते जाते हैं।
३. नदी का काम है ऊंचाई वाले इलाकों से मिट्टी के कणों (सेडीमेंट) को मैदानों में फैलाना और मुहाने के क्षेत्रों तक पहुँचाना। इस तरह जमीन को उपजाऊ बनाना। अपने पानी की ताक़त से लाखों टन गाद को खींचते रहना, और बाढ़ के वक़्त उसे एक बड़े क्षेत्र में फैला देना, भू जल के रिज़र्व को बनाये रखना और करोड़ों जीव जंतुओं को जीवित रहने के लिए भोजन और पानी उपलब्ध कराना।
४. उसका काम बिजली बनाने या बड़े जहाज़ों के लिए रास्ता देने के लिए कभी नहीं सोचा गया था।
५. नदियाँ इंसान और उसके फिरकों, मुल्कों, इलाकों की ईजाद से कहीं पहले चला दी गयीं थीं।
६. नदियों का एक काम सभ्यता को रचना भी है। अलबत्ता सभ्यता नदी को नहीं रच सकती, बस उसे थोड़ा सुन्दर बना सकती है।
ऐसी बहुत सी बातें हैं। बहुत सी बातें जो किताब हमें बताती है। किताब हमें बताती है कि फरक्का बाँध बनने से पहले जब भागीरथी (बंगाल के कुछ भाग में गंगा को भागीरथी कहते हैं ) मुर्शिदाबाद में से बहती थी, तब बाढ़ आने से उसकी सहायक नदियों का बहाव उल्टा हो जाया करता था।
इस अतिरिक्त पानी को दसियों सालों में वहां के लोगों ने उथली नहरें बना कर खेतों तालाबों तक पहुँचाया। ये तालाब बाढ़ ख़त्म होने के बाद भी धारा में पानी बनाये रखने में मदद करते थे। उथली होने के कारण इनमें मोटा रेत नहीं जा पाता था, सिर्फ उपजाऊ मिटटी ही खेतों तक पहुँचती थी। फरक्का ने इन नहरों को जिन्हें आप्लावन नहरें कहा जाता है, बर्बाद कर दिया। एक ऐसी व्यवस्था जो हज़ारों सालों में बनायीं गयी थी, बर्बाद हो गयी।
इस अतिरिक्त पानी को दसियों सालों में वहां के लोगों ने उथली नहरें बना कर खेतों तालाबों तक पहुँचाया। ये तालाब बाढ़ ख़त्म होने के बाद भी धारा में पानी बनाये रखने में मदद करते थे
किताब ऐसी व्यवस्थाओं के ध्वस्त होने की कहानियां तो पाठक तक पहुंचाती ही है , सिस्टम पर भी एक गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। मसलन हमारे देश में नदियों के पानी के स्तर पर नज़र रखने के लिए बहुत पैसा खर्च किया जाता है। पर अभी तक एक सिस्टम नहीं है जो बाढ़ की सूचना सही समय पर दे सके या बाँध टूटने जैसी घटना की चेतावनी दे सके।
फरक्का के बारे में किताब कहती है कि इसके दुष्परिणाम उसके बनने के 20 साल बाद ही आने शुरू हो चुके थे। गाद का अनुमान तो कुछ ही साल में हवा हो गया था। उसके कारण नदी कई धाराओं में टूटने और तबाही फैलाने लगी है। फ़रक्का डैम को बनाया गया कोलकाता के गोदी को चालु हालत में बनाये रखने के लिए ।
पर इसने बिहार और बंगाल में हर साल बाढ़ लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 2012 में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने यह बात खुल कर कही भी। बांग्लादेश से अदावत तो बैराज बनने से ही शुरू हो गयी थी। और आज भी बांग्लादेशी जनमत बाँध के खिलाफ ही है। किताब डिसिल्टिंग के कारोबार पर भी सवाल खड़ा करती है, जोकि ठेकेदारों पर टिका है।
और दिलचस्प रहस्योद्घाटन जो यह किताब करती है, वह यह की कैसे फरक्का बनने से हिलसा मछली का उत्पादन क्षेत्र में बंद सा हो गया। गंगेटिक डॉलफिन यानी सूस जो पहले लाखों की तादाद में थी, अब कुछ 3000 ही रह गयी हैं। 940 डैम और बैराज है गंगा पर। नदी को बहने दो भैया !! उसकी जान ही निकाल ली है हमने अपने लालच में।
जब हम बैराज बनाने के लिए मिट्टी निकालते हैं, तो कई परतें गाद की भी हटानी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में सालों से दबा प्लास्टिक और शतकों से जमा आर्सेनिक दोनों बाहर आ जाते हैं। यह उन मछलियों और गंगा किनारे हो रही खेती के लिए नुक्सान दायक साबित होती है।
उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़ रहे आर्सेनिक के खतरे पर भी किताब एक नज़र डालती है। कुछ और रहस्य जैसे गंगा के क्षेत्र में धान की खेती का कम हो जाना, और बनारस में गंगोत्री का गंगाजल बिकना किताब की भविष्योन्मुख नज़र से निकलकर आयी हैं। पर यह तो सबको पता है कि गंगा का पानी अब हरिद्वार के नीचे पीने लायक नहीं बचा है। और शायद थोड़ा और आगे जाएँ तो नहाने लायक भी नहीं।
कुल मिलाकर इन बैराजों से नदी की सोच को आर्थिक लाभ की सोच में बदलने की एक प्रक्रिया चल रही है जिसे यह किताब बयां करती है। किताब इन तारों को "नदी जोड़ो प्रोजेक्ट" से भी जोड़ती है और विश्व बैंक की नीतियों से भी। ध्यान रहे की सरदार सरोवर और फरक्का, दोनों में विश्व बैंक का पैसा लगा है।
और दोनों ही आज नासूर की तरह खड़े हैं हमारे देश के शरीर पर। इसके पीछे राजनीतिक पार्टियों का गणित है, और ठेकेदारों का भी, मंत्रालय के बाबुओं का भी।
हमारे छोटे से शहर मंडला में सबसे बड़े मकान या तो सिंचाई विभाग के कर्मचारियों के हैं या नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर बांधों के प्रोजेक्ट पर काम करने वाले ठेकेदारों के। यूँ, मुझे इसे तो समझना आसान था।
किताब की कुछ खामियां भी हैं। मसलन, किताब 2075 में सेट होने पर भी ऐसा महसूस नहीं कराती कि वह भविष्य से मुखातिब है। वह आज की समस्याओं से बहुत दूर नहीं है। यह मेरे मन में पूरा फिट नहीं बैठता कि कोई महिला अपने 200-250 साल पुराने इतिहास से करीबी महसूस करे।
ये मुझे आज की बात लगती है। लेखक के मन की बात लगती है। उसमें कोई हर्ज़ नहीं, पर मुझे थोड़ा अटपटा लगा, सो कह रहा हूँ। किताब के आखिरी पेज पर अचानक से जून 2074 आ जाता है जोकि 2075 होना चाहिए। शायद प्रूफ रीडिंग में कुछ कमी है। पर अपनी खूबियों से किताब इन सबको कहीं पीछे छोड़ देती है।
इस किताब को हमारे तथा कथित गंगा के बेटों को ज़रूर पढ़नी चाहिए। गंगा माँ का सही सम्मान कैसे होगा, शायद यह किताब उन्हें समझा सके
खैर, इस किताब को हमारे तथा कथित गंगा के बेटों को ज़रूर पढ़नी चाहिए। गंगा माँ का सही सम्मान कैसे होगा, शायद यह किताब उन्हें समझा सके। इस किताब तक पहुँचने की मेरी यात्रा एक यूट्यूब चैनल से शुरू हुई। हरनंदी कहिन एक छोटी सी नदी हिंडन की कहानी कहता है, जोकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र से होती हुयी यमुना में मिलती है।
पर उसके साथ साथ ये चैनल देश की सारी नदियों की कहानी भी कहता है जिनकी कहानी हिंडन से अलग नहीं है। चैनल के सब्सक्राइबर बेस पर न जाइये। पर चैनल देश के सबसे जुझारू नदी कार्यकर्ताओं की बातों को ईमानदारी से पेश करता रहा है। इसी ने मुझे अभय मिश्रा जी के इस सुन्दर काम से मिलाया। इसका लिंक मैं नीचे दे रहा हूँ।
ईशान अग्रवाल सामाजिक कार्यकर्ता हैं और अपने blog 'मैं कबीर' पर गहरायी से लिखते हैं। यह लेख वहीं से साभार।