किसान क्यों कर रहे हैं कृषि क़ानूनों का विरोध

January 3, 2021
|

दिल्ली बॉर्डर पर हज़ारों किसान पिछले एक महीने से धरने पर बैठे है। उनकी माँग है कि केंद्र सरकार तीन नए कृषि क़ानूनों को रद्द करे। उन्हें लगता है कि यह क़ानून उनकी ज़मीन और फ़सलों को निजी कम्पनियों के हाथों में दे देंगे। यह नए क़ानून सरकारी मंडियों से बाहर ख़रीद फ़रोक्त और कॉंट्रैक्ट खेती को अनुमति देते हैं। साथ ही साथ खाद्य सामग्री के निजी भंडारण पर लगी रोक को हटाते हैं। सरकार का कहना है कि नए क़ानून किसान को अपनी फ़सल का उचित मूल्य दिलाने में कारगर होंगे। परदर्शनकारियों का कहना है कि सरकारी मंडी से बाहर वे निजी कम्पनियों से मोल भाव नहीं कर पाएँगे। अभी तक APMC या मंडी कमेटी ही व्यापारियों और किसानों के बीच किसी भी तरह के कारोबार का निरीक्षण करती है व विवाद का हल भी । नए क़ानून सभी गतिविधियों को APMC के दायरे से बाहर करते हैं पर किसी नयी प्रणाली की बात नहीं करते जो इनका नियंत्रण करेगा।

ऊँट का चमड़ा बन सकता है इसे बचाने का ज़रिया

October 16, 2020
|
ऊँट के चमड़े के खिलौने भी बनते हैं. चित्र: Pikist

आज ऊँट पालक एवं ऊँट दोनों अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। वर्तमान परिवेश में ऊँट पालन आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है। आधुनिक युग में नई संभावनाएँ दूध एवं उसके उत्पाद, खाल, चमड़े, पर्यटन, हड्डी इत्यादि के रूप में पैदा हुई है। अगर इसमें सही निवेश किया जाए तथा परंपरागत तरीकों में कुछ नवीन तरीकों को भी समाहित किया जाए तो ऊँट पालक एवं ऊँट दोनों अपने अस्तित्व को क़ायम रख सकेंगे

बचपन में कैंसर को हराया, अब उसी पर रिसर्च

September 14, 2020
|
|
नित्या मोहन कैंसर इम्यूनोथैरेपी में पीएचडी कर रही हैं

रिसर्च स्कॉलर नित्या मोहन जब मात्र सात साल की थीं, तब उन्हें कैंसर  का सामना करना पड़ा। लेकिन समय पर इलाज, परिवार के सहयोग और खुद के हौसले ने कैंसर को हरा दिया। इतनी कम उम्र में कैंसर का मतलब एक छोटे बच्चे की समझ से परे था। लेकिन कैंसर के इलाज के दौरान की यादें नित्या के मन में इतनी गहराई तक समाईं कि बड़े होने पर भी उनके मन में कई सवाल उठते रहे, जैसे आखिर यह कैंसर है क्या? इसका कारण क्या होता है? क्या कोई ऐसी वैक्सीन नहीं है, जो कैंसर को होने से रोक सके? और इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने के लिए उन्होंने कैंसर पर रिसर्च करने का निश्चय किया। उनका वह इरादा इतना प्रबल था कि उसे हकीकत में बदलना ही पड़ा।वर्ष 2016 में उनका चयन जर्मन कैंसर रिसर्च सेंटर, हाइडलबर्ग, जर्मनी के लिए हो गया। जहां से इस समय वे कैंसर इम्यूनोथैरेपी में पीएचडी कर रही हैं

माटी मानुष चून : क्या गंगा एक मानव निर्मित नदी नेटवर्क बनने वाली है ?

ये एक महान नदी के तिल तिल मरने की कहानी हैं

ये एक महान नदी के तिल तिल मरने की कहानी हैं। वह नदी जिसे  इस देश के करोड़ों लोग अपनी माँ कहते हैं। वह नदी जो एक पूरी भाषा, एक पूरी संस्कृति की जननी है, क्या आप मान सकते हैं कि मर रही है? ये किताब उस लम्हे को बयान करने की कोशिश है कि जब गंगाजल सिर्फ गंगोत्री में बचेगा, बनारस में नहीं। बाकी जगह सिर्फ पानी होगा, गंगाजल नहीं, जिसके बारे में कहावत थी कि गंगाजल कभी सड़ता नहीं । इस किताब को हमारे तथा कथित गंगा के बेटों को ज़रूर पढ़नी चाहिए। गंगा माँ का सही सम्मान कैसे होगा, शायद यह किताब उन्हें समझा सके। इस किताब तक पहुँचने की मेरी यात्रा एक यूट्यूब चैनल से शुरू हुई। हरनंदी कहिन एक छोटी सी नदी हिंडन की कहानी कहता है, जोकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र से होती हुयी यमुना में मिलती है

दुनिया का खेला: अनुपम मिश्र की ज़ुबानी

नाट्य शास्त्र हमारे हाथ आया कोई 17 सौ बरस पहले

नाटक में नौ रस हैं, दुनिया के खेला में भी नौ रस तो हैं ही भाई पर इनमें नाटकों के अतिरक्ति एक रस और जुड़ गया है। आप सब भी हैरान होंगे कि नौ के दस कैसे हो गए। इस रस का नाम है - गन्ना रस! गन्ने का रस भी मिल जाता है। कैसे? आपने गन्ने का रस ठेले पर सामने खड़े होकर पिया ही होगा। पहले साबुत गन्ना डालते हैं। फिर एक बार रस निकल आया तो उसी गन्ने को दो बार मोड़ कर फिर रस निकाला जाता है। फिर तीसरी बार दो के बदले तीन-चार बार मोड़ कर अदरक, नींबू लगा कर फिर निचोड़ा जाता है। जब तक इन सारे छिलकों का रस न निकल जाए- दुकान वाला रुकता ही नहीं। इस खेले की दुकान वाला भी हम सब का रस कभी-कभी इसी शैली में निकालता है। इतना समय तो आपका बर्बाद नहीं करना है। पर दो-चार रसों में गन्ना रस देख ही लें हम।

भूमि सुधार बस एक सपना ही रह गया

May 30, 2020
|
ग्रामीण भारत के 56 प्रतिशत परिवारों के पास कोई खेती की ज़मीन नहीं है। चित्र: मनु मुदगिल

आज़ादी के समय भारत के कृषि ढांचे की विशेषता भूमि के असमान वितरण और किसानों के शोषण से थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त जागीरदारों और जमींदारों जैसे बिचौलिये किसानों से उच्च किराया इकट्ठा करते थे। इन बिचौलियों को खेती और कृषि भूमि के सुधार में कोई दिलचस्पी नहीं थी। किसानों के नाम ज़मीन नहीं थी, उनके कार्यकाल की कोई सुरक्षा नहीं थी और देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न भू-राजस्व और स्वामित्व प्रणालियां प्रचलित थीं। भूमि सुधार का तात्पर्य कृषि भूमि के साथ किसान के संन्द संस्थागत परिवर्तन लाये जाने से है। इस संदर्भ में भूमि सुधार के लिए दो प्रमुख उद्देश्य अपनाये गए है: एक, कृषि उत्पादन में वृद्धि और दूसरा, कृषिकों के प्रति सामाजिक न्याय

किसानों और जंगली जानवरों का लफड़ा क्या है

क्या सच में किसानों का लालच हाथियों के घटते रहवास के लिए जिम्मेदार है? Source: Need Pix.com

ये सच है कि जंगल साफ़ करके खेत बनाने की प्रवत्ति किसानों में बहुत पुरानी है। आदमी और जानवरों की लड़ाई भी बहुत पुरानी है। लेकिन इस सब में हम ये भूल जाते हैं कि बहुतायत भारतीय किसान अपने उत्पादन का अधिकतर हिस्सा घरेलू जरूरतों के लिए इस्तेमाल करते हैं। लेकिन औपनिवेशिक काल के ये उद्योग किसकी भूख को ध्यान में रख कर बनाये गए थे, क्या इसमें हमें कोई हिस्ट्री क्लास चाहिए? जिस औद्योगिक नीति से औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने हमारे संसाधनों का शोषण किया, उसका असर अब तक ख़त्म होना तो दूर, बढ़ ही रहा है । मान लीजिये आप एक वनवासी हैं, और सरकार आपके जंगल में ऐसा एक पेड़ लगा देती है, जिसका इस्तेमाल आपको पता ही नहीं

'जी.एम. सरसों से छिन जाएगी हमारी आजादी'

June 8, 2017
|
भारत में 65 से अधिक विभिन्न प्रकार के सरसों हैं. चित्र: CCAFS/Flickr.

पर्यावरण मंत्रालय जल्द ही जी. एम. सरसों को मंज़ूरी दे सकता है। मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग स्वीकृति समिति ने 11 मई 2017 को दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा विकसित जी. एम. सरसों के बीज, डी. एम. एच. 11, के व्यावसायिक उपयोग की सिफारिश की थी। यदि पर्यावरण मंत्रालय इसे स्वकृति देता है तो डी. एम. एच. 11 भारत की पहली जेनेटिकली मॉडिफाइड (जी. एम) खाद्य फसल बन जाएगी। आलोचकों  का सबसे बड़ा आरोप है कि परीक्षणों से संबंधित वैज्ञानिक डेटा को अभी तक गुप्त रखा गया है। जी. एम. सरसों से जुड़े बायोसेफ्टी परिणामों को जनता के बीच लाना चाहिए। सरसों सत्याग्रह के प्रोफेसर राजिंदर चौधरी बताते हैं कि इस निर्णय के खिलाफ लड़ना महत्वपूर्ण क्यों है। 

नदी की धारा सा अविरल समाज

June 30, 2016
|
एक मन्दिर और छोटा सा सरोवर नांडूवाली नदी के उद्गम स्थल को चिन्हित करते हैं.

यह कल्पना करना मुश्किल है कि एक समय था जब यह नदी और जंगल सूख चुके थे। कुओं में कटीली झाड़ियां उग आई थी। बरसात के पानी से जो थोड़ी बहुत फसल होती थी, उसमें लोगों को गुज़ारा करना मुश्किल हो रहा था।  पैसों की कमी के चलते लोगों को गाय भैंस का चारा खरीदना भारी पड़ रहा था, इसीलिए वे उन्हें बेच कर बकरियां रखने लगे। वहीं रोज़ी रोटी के लिए लोगों को मजबूरन यहां से पलायन करना पड़ रहा था। लेकिन आज यह इलाका न केवल प्राकृतिक रूप से समृद्ध है बल्कि आर्थिक रूप से भी संपन्न हो चुका है। आज यहां सब्जियों के खेत लहलहा रहे हैं, कदम, ढोंक और खेजड़ी की शाखाएं फूलों और पत्तियों से लदी हैं।  पिछले दो वर्षों में कम बरसात के बावजूद आज कुओं में पानी 40-50 फीट पर उपलब्ध है।

‘हर बीज एक राजनीतिक बयान देता है’

March 10, 2015
|
 बहुत सी परंपरागत फसलें बीमारी से निजात पाने में मददगार होती हैं, जिन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में उगाया जा सकता है।

आलू जो कि बेल पर उगता है,  चावल को पानी में भिगोने के बाद कच्चा खाया जा सकता है, दलिया (फटा गेंहू) प्राकृतिक रूप से मीठा होता है। यह सब सुनने में भले ही अटपटा लगे। लेकिन हमारे किसान सदियों से यह सब उगाते आ रहे हैं। इनके अलावा, ऐसी बहुत सी फसलें हैं जो कि खासतौर पर बीमारी से निजात पाने में मदद करती हैं और जिन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में उगाया जा सकता है। लाल चावल के बारे में आप क्या कहेंगे जिसे इसकी पौष्टिकता के चलते खासतौर पर गर्भवती महिलाओं के लिए पकाया जाता है? या धान जिसे सुंदरबन के खारे पानी में उगाया जा सकता है?